Saturday, December 15, 2018

मानव हूं या धर्म हूं मैं

एक सोच मेरे दिल को अक्सर
शून्य बना उड़ जाती है
कौन हूं मैं और क्यों हूं मैं
बन सवाल फिर आती है
और मैं बस एक ठूठ का सा
साँप सूंघ रह जाता हूं।

राम हूं या फिर रावण हूं मैं
अर्जुन हूं या हूं दुर्योधन
प्रश्न कठिन है जानता हूं मैं
पर जवाब भी चाहता हूं मैं
किससे पूछूं कहाँ को जाऊँ
कौन बताएगा ये मुझको
सत्य हूं या फिर झूठ का पुतला
धर्मराज हूं या पापी मैं।

एक पल लगता मैं शंकर हूं
दूजे विष्णु बन जाता हूं
तीजे राक्षस लगता हूं मैं
चौथे ब्रम्हा बन जाता हूं
नदियां देखी, झील भी देखी
सब में खुद का चेहरा दिखता
पर अफसोस अभी भी है
हृन्या हूं या ध्रुव हूं मैं।

मंदिर भी गया, मस्ज़िद भी गया
काबा भी गया, काशी भी गया
दिया जलाया, अज़ान भी दी
व्रत रखा और रोजा भी
गीता भी पढ़ी, आयत भी पढ़ी
टीका भी किया और टोपी भी
पर जवाब अब तक ना मिला
पंडित हूं या मुल्ला मैं।

थक कर अब मैं टूट गया हूं
बचा ना अब मुझमें दम है
किसको याद करूँ अब मैं
कौन इसे अब सुलझाएगा
मानव हूं या धर्म हूं मैं।






No comments:

Post a Comment